लोगों की राय

लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

150 पाठक हैं

औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...

नाम में बहुत कुछ आता-जाता है


ये ऊँचे-ऊँचे मर्दो के लिए तैयार किया गया है, इसलिए इन तमाम पदों में 'पति' की बाढ़ लगी रहती है-भूपति, राष्ट्रपति, सभापति, दलपति। पत्नियों को तो घरबन्दी करके रखा जाता था और आज भी रखा जाता है। पत्नियों को शिक्षित भी नहीं होने दिया जाता था और आज भी नहीं होने दिया जाता है। कुछ ज़्यादा ही ज़ाहिर लिंग-वैषम्य को ज़रा हल्का करने के लिए, संरक्षण या उसी क़िस्म का कोई कारण जताकर, आराम से पढ़ाई-लिखाई सीख कर-कान पर कलम खोसकर, दफ़्तर जाने वाली मालकिनों' (नारी शिक्षा के विरुद्ध बंगाल के शिक्षित मर्दो की ढेरों व्यंग्योक्ति में से एक) को अचानक ऐसे-ऐसे पदों के सामने लाकर खड़ा कर दिया जाता है, जिस तरफ़ पैर बढ़ाने का भी उन लोगों को अधिकार नहीं है। प्रेसिडेण्ट पद पर 'अनटचेबल' आये, ‘माइनारिटी मुस्लिम' भी आये, अब उन लोगों के साथ एक ही क़तार में खड़े, दूसरे दर्जे के नागरिक, दूसरे शब्दों में 'सर्वोत्कृष्ट अनटचेवल' और 'माइनारिटी' यानी औरत को उस पद पर बैठा दिया जाये, तो भारत नामक राष्ट्र की उदारनीति के बारे में, समूची दुनिया में उसका नाम गूँज उठेगा। राष्ट्र का 'पति' होगी एक अदद औरत। लेकिन, पति तो पुरुष होता है, पुरुष के लिए तैयार किये गये पद पर कोई औरत क्यों आसीन होने लगी? पुरुषों के लिए वह पद तैयार किया गया, अब उस पद के लिए कोई औरत चुनी गयी है तो क्या पद का नाम बदल जायेगा? यह बात न मानने वाले लोगों की तादाद प्रचुर है। इनमें बुद्धिजीवी हैं, धाकड़-धाकड़ नारीवादी भी हैं। मेरी राय में ऊँचे-ऊँचे पद हस्तगत करने का अधिकार सिर्फ पुरुषों को ही नहीं है औरत को भी है, यह पद तैयार करते हुए, किसी भी पुरुष के दिमाग़ में नहीं आया होगा। जब उस वक़्त अक्ल नहीं आयी, तो आज करें उसका प्रायश्चित्त। 'पति' शब्द अब लुप्त कर दिया जाये या फिर नारी-पद यानी लिंग-निर्धारित पद तैयार किया जाये। बेहतर क्या यह नहीं होगा कि मर्द-औरत, दोनों के लिए पद यानी लिंग-निरपेक्ष पद का सजन किया जाये? लेकिन बहतेरे लोग इसके लिए राजी नहीं हैं। पुरुष पद जैसा है, उसी तरह कायम रखना च स्टाम्प पैड वगैरह जो बदलना होगा। उन लोगों का कहना है कि यह 'प्रैक्टिकल' नहीं है। पुरानी चीज़ों से ही काम चलाये जाना ही 'प्रैक्टिकल' है। पुरुष-पद तो अकस्मात ही औरत ने हथिया लिया है ऐसा बार-बार तो घटेगा नहीं इसलिए यह पद जिस नाम पर है उसी नाम पर क़ायम रहे। बहुत खर्च हो जायेगा, और भी ढेरों झमेले हैं-यह सब युक्ति दिखाकर, पुरुष का नाम ही यह पद बहाल रहे, यही पुरुषवादी औरत-मर्द, सभी के मन की बात है।

मैं यह नहीं मानती! इस मामले में खर्च और अतिरिक्त झमेले वहन करना, बेहद ज़रूरी है! राष्ट्र का धन तो सैकड़ों गैर-ज़रूरी खाते में खर्च हो जाता है। यह अर्थ-व्यय तो मानवता के हित में, युगान्तकारी संस्कारों के लिए है और यूँ भी नये सिरे से दफ़्तर के कागज़-पत्तर, पद, नाम बदलने में ऐसा कोई पहाड़ जितना खर्च नहीं है कि भारत सरकार वहन न कर सके। जाने कितने-कितने शहरों के नाम बदल दिये गये।

वे सब झमेले क्या ‘कम बढ़े हुए' थे? बम्बई जब मुम्बई हो जाता है, मद्रास जब चेन्नई होता है, कलकत्ता जब कोलकाता हो जाता है, तब क्या सिर्फ़ महर-पैड वगैरह ही बदलना पडता है? और यह तो शहर का नाम बदलने जैसा, रूमानी जातीयतावाद नहीं है, यह हज़ारों वर्षों से पाला-पोसा हुआ पुरुषतन्त्र की मदद से लिंग-वैषम्य की जय-जयकार के ख़िलाफ़, मानवता के पक्ष में आन्दोलन है। जो मानवता औरत-मर्द को बराबरी की नज़र से देखती है, जो परिवार, समाज, राष्ट्र और मानव-चिन्तन-चेतना में प्रवेश न कराया जाये, समाज का वैषम्य दिनोंदिन बढ़ता जायेगा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book